Sunday 28 October 2018

रेख्ताओं में मीर तकी मीर और उनकी मुहब्बत

मेरे परम मित्र हैं नीलेश और सूरज। सूरज की एक सोशल मीडिया पोस्ट पर नीलेश ने टिप्पणी लिखी जो मुझे महान शायर मीर तकी मीर से मिला लाई। टिप्पणी कुछ इस प्रकार थी कि....
"ग़लत है ये, तुम तो भड़के आशिक़ हो और शायरी लिखना तुम्हारा पेशा है।"
ये लफ्ज़ सीधा मीर तकी मीर से ताल्लुक रखते हैं। ऐसा मेरा मानना है। तो फिर आइये मैं आपको अपने मीर से मिलाता हूं।

ये मीर के जवानी के दिन थे। दिल्ली सल्तनत में बादशाह समसामुद्दौला के यहां महान शायर मीर तकी मीर ने उर्दू शायरी को एक मुकाम पर पहुचा दिया। ये बात करीबन 1735 के आसपास की है। बादशाह ने मीर को एक रुपये के वजीफे पर अपने यहां रख लिया। मीर अपनी शायरी और रेख्ताओं में उर्दू ज़बान के साथ हिंदुस्तानी लफ़्ज़ों का खूब इस्तेमाल करते थे। यही वजह रही कि दरबार मीर की शेर-ओ-शायरी में डूब गया। कुछ वक्त के लिए वे अपने घर यानी आगरा लौट आये।


इस बीच करीब 1739 में फारस के बादशाह नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण कर दिया। कई दिनों तक चले युद्ध में बादशाह समसामुद्दौला मारे गए। तख्त छिन गया और नादिरशाह ने सल्तनत पर कब्ज़ा कर लिया। इस घटना ने मीर को झकझोर दिया। उनका वजीफा भी बंद कर दिया गया। वह दिल्ली में ही अपने सौतेले भाई के मामू सिराजुद्दीन अली खान आरजू के यहां रहने लगे। सिराजुद्दीन भी ग़ज़ब शायर थे।

इस दरमियान मीर को बला की खूबसूरत महताब बेगम से मोहब्बत हो गई। महताब भी मीर के शायराना अंदाज़ में पाबस्ता हो गईं। अब मीर की शायरी और रेख्ताओं में इश्क की चाशनी घुल गई। वे अक्सर जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठे शायरी कहा और लिखा करते। बात भी शायराना अंदाज़ में ही करते। मीर सारे जमाने में मशहूर हो गए। गोशे गोशे में उनके रेख्ता बैठ गए, उनके मुहब्बत में डूबे कलाम बुलंदियां चूमने लगे। महताब और मीर की मुहब्बत चिड़िया की मानिंद हवा में उड़ान भरने लगी। इश्क को नज़र लगते देर नहीं लगती। बाजार में इश्क के चर्चे होने लगे। मीर से जलने वाले दूसरे शायरों ने दरबार में मनमाफिक बातें पेश कीं। बादशाह तक बात पहुंची तो कहर हो गया। कहते हैं बादशाह भी महताब के हुस्न पर लट्टू थे।

अगले रोज़ दरबार सज गया और मीर समेत बड़े शायर हाज़िर हुए। शेर-ओ-शायरी का दौर शुरू हुआ। मीर की मुहब्बत से खफा बादशाह ने हुक्म जारी कर महताब को दरबार में बुलवाया और मीर के ही शेरों और रेख्ताओं पर महताब से मुजरा करवाया। मुहब्बत की तौहीन मीर को बर्दास्त न हुई और वे दरबार से जाने लगे, बादशाह ने मीर को अपने पास बैठने और पूरा मुजरा देखने का हुक्म दिया। आशिक को हुक्म बर्दास्त न हुआ और मीर दरबार छोड़कर चले गए। बादशाह के हुक्म की नाफरमानी इससे पहले किसी ने न की थी। सल्तनत में हल्ला हो गया।

आशिकों पर किसका ज़ोर चला है जो बादशाह का चलता। बादशाह ने मीर को अकेले में समझाने-बुझाने की तरकीब से बुलावा भेजा। अगले रोज़ बादशाह के आरामखाने में मीर पहुंच गए। बातचीत शुरू हुई और माहौल गरमा गया।

बादशाह ने कहा- "महताब से तुम्हारी मुहब्बत ग़लत है ये, तुम तो आज भड़के आशिक़ हो। सिर्फ शायरी लिखना तुम्हारा पेशा है।"

इस पर मीर के जवाब सुन बादशाह आगबबूला हो गए। मीर अपने आशियाने लौट आये। रात में जब आसमान में चांद खिल रहा था तब मुहब्बत के आंगन का महताब बुझ गया। मीर दर्द में डूब गए, उन्हें चांद में महताब दिखने लगा।

Friday 14 September 2018

मौत के मकां

मौत के मकां, खूब हैं यहां
देख लो देख लो खूब गौर से
आ रहे लोग यहां दूर दूर से
न है किसी को पता न किसी को खबर
कितनी रेत डाली है कितनी छोड़ी डगर
बिल्डर ने सारे नियम तोड़ डाले हैं
सीमेंट सरिया हल्की डाली, कच्चे ईंट डाले हैंमौत के मकां, poem
हम गए हम गए तुम भी पहुंच गए
बातों में आके बिल्डर को नोट दे दिए
सोच न सके कुछ भी सोच न सके
हमने एक लिया प्लॉट तुमने दो लिये

प्लॉट के नाम पे फ्लैट दे दिया 
बुरे फंसे बुरे फंसे हमको ठग लिया
मन मसोसकर फिर रहने चले गए
मकां सजा दिए पूजा भी कर दिए
रह रहे थे हम तो खूब शान से
अपने अपने घर में जो आलीशान थे
फिर नज़र लगी किसी कि दिन काला हो गया
जोर का शोर हुआ और गुबार छा गया
चारों ओर चारों ओर हर कोई रो पड़ा
आलीशां आलीशां मकां मेरा ढह गया

मौत आई मौत आई रूह कांप गई
गृहस्थी उजड़ गई ज़िन्दगी बिखर गई
भीड़ आई लोग आए जमघट भी लग गया
देखते देखते सपना वो थम गया
कुछ मरे कुछ दबे कुछ मिले भी नहीं
देखिए आज तो रोशनी भी काली हो गई
सब बिलख बिलख गये मुलाज़िम आ गया
पांच पांच लाख का ऐलान कर गया
मौत सस्ती देख के दिल ये रो गया
हाय हाय हाय क्या से क्या हो गया
जान गई माल गया वज़ूद भी चला गया
वो देखो वो देखो बिल्डर तो हंस रहा।


- रिज़वान नूर खान

Thursday 13 September 2018

मुर्गे की दावत


गांव के बदलते स्वरूप को आलेख रूपी छोटी-छोटी यादों को समेटे रामधारी सिंह दिवाकर की 'जहां आपनो गांव' किताब हाल ही में साहित्य संसद प्रकाशन दिल्ली से छपकर आई है। किताब में बिहार के अररिया ज़िलें के गांवों का ज़िक्र किया गया है। वहां के हालातों, मजदूरों की मुश्किलों और उनके आधुनिक होने के साथ ही गांव-देहात की अच्छी-बुरी बातों का वर्णन है।

लेखक ने किताब की दूसरी कहानी में हनीफ चाचा को केंद्र में रखा है। हनीफ बुजुर्ग हैं, उनका कोई पक्का रोजगार नहीं है। एक तरह से मजदूर ही हैं। करीब तीन बीवियां और 18 बच्चों का कुनबा है। इसके अलावा कई मुर्गियां और बकरियां हैं। परिवार की जीविका मुश्किल से चलती है। मुर्गे-बकरियों की वजह से आये-दिन पड़ोसियों से कहासुनी होती है। कई बार मारपीट और ख़ूनमखून भी हो चुका है। जबकि कई लोगों से उनकी अच्छी पटती भी है।

हनीफ चाचा का मुर्गा सुबह से नहीं मिल रहा, अब शाम हो गई है। हनीफ और बाकी लोग जानते हैं कि मुर्गा पड़ोसी बनिये ने खुंदक निकलने के लिए पकड़कर छुपा लिया है। हितैषियों के कहने पर हनीफ चाचा थाने में शिकायत करने पहुंचे हैं। दरोगा ने चाचा को सुना, तम्बाकू थूकी और लार टपकाती आंखों से इशारा कर रुपये मांगे। चाचा बनिये को पिटवाना और मुर्गे को वापस पाना चाहते हैं तो कुर्ते की जेब से 20 का नोट निकालकर दे दिया।

बनिये को थाने में दांत-डपट के बाद चार-छै डंडे पड़े तो मुर्गा लाकर दरोगा को सौंप दिया। हनीफ चाचा को अब तसल्ली है। बनिये की बेइज्जती हो गई। थाने से छोड़ने के नाम पर दरोगा और दलालों को जेबें भी गरम हो गईं। तमाशा देखने वालों का मनोरंजन हो गया। हनीफ चाचा मुर्गा लेकर जाने लगे तो दरोगा ने घुड़क दिया और उसे काट-छीलकर लाने को कहा। शाम को थाने में मुर्गे की दावत उड़ी।

इस लड़ाई में न हनीफ चाचा को कुछ हासिल हुआ और न बनिये को कुछ मिला। बल्कि दूसरे-तीसरे लोग मलाई काट गए। करीब दो दशक पुरानी इस घटना ने आज और विस्तार पा लिया है। घूसखोरी और एक-दूसरे से जलने-कुढ़ने की आदत का कैनवास पहले कहीं ज्यादा बड़ा हो गया है।

लेखक रामधारी सिंह दिवाकर कई किताबें, कहानियां लिख चुके हैं। अररिया ज़िले के नरपतगंज गांव के रहने वाले हैं। मिथिला विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हैं। उनकी यह किताब अभी पूरी पढ़ी नहीं है। पढ़ रहा हूं पर अभी तक जितनी पढ़ी है उससे कह सकता हूं कि किताब 'जहां आपनो गांव' में संकलित संस्मरण अच्छे हैं। इसे पढ़ा जाना चाहिए।

Sunday 10 June 2018

बुंदेलखंड का सूखा

बुंदेलखंड हमेशा से कम बारिश वाला इलाका रहा है, लेकिन 2002 से लगातार सूखे ने मर्ज़ को तकरीबन लाइलाज बना दिया है.यह जमीनी बताती है कि बुंदेलखंड को ईमानदार कोशिशों की ज़रूरत है. साफ-सुथरी सरकारी मशीनरी अगर आम लोगों को साथ लेकर कोशिश करे तो सूखता जा रहा बुंदेलखंड शायद फिर जी उठे।


दिल्ली के पास वैशाली में तकरीबन नियमित रूप से एक रिक्शेवालेचेतराम से मेरी मुलाकात होती है जो अमूमन सफ़ेद कमीज़ और पाजामे में होता है। वही चेतराम मुझे एक रोज़ अपने घर के असबाब के साथ सड़क पर खड़ा मिल गया। उसकी झुग्गी उजाड़ दी गई थी। आनंद विहार, दिल्ली की सरहद है और एक सड़क इस केंद्रशासित प्रदेश को उत्तर प्रदेश से अलग करती है। इसी सड़क से थोड़ा और आगे जाएंगे तो वैशाली और इंदिरापुरम जैसी पॉशकॉलोनियां हैं।

वैशाली में, जहां मैं रहता हूं, आसपास अभी अनगिनत खाली प्लॉट हैं, जिनपर न जाने कितने लोग झुग्गियां बनाकर रहते हैं। वहां महागुनमेट्रो और शॉप्रिक्स जैसे चमचमाते मॉल्स हैं, जहां की दुनिया में पॉपकॉर्न जैसी चीज़ें मक्खन के साथ खाई जाती हैं, उससे थोड़ा आगे ही करोड़ों की कीमत वाले खाली प्लॉट्स पर झुग्गियों में न जाने कितनी ज़िंदगियां अपने अरबों-खरबों के सपनों को जीने लिए जाने कहां-कहां से आती हैं।

चेतराम भी उन्हीं में से एक हैं, जो उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड से पलायन करने को मजबूर हुए हैं। बिरादरी से दलित चेतराम पेट पालने के चक्कर में घर छोड़कर यहां किसी और की ज़मीन पर रहते हैं, जहां उनकी झुग्गी अवैध और गंदी बस्ती के रूप में गिनी जाती है।

ऐसी ही किसी गिनती को कम करने के लिए गाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण ने सभी खाली प्लॉटवालों को अपने प्लॉट पर निर्माण कार्य शुरू कराने का आदेश दिया, ऐसा न करने पर आवंटन रद्द कर दिया जाता। इसीलिए, चेतराम की झुग्गी उजाड़ दी गई। झुग्गी ही नहीं उजड़ी, उनका घर और उनकी दुनिया भी उजड़ गई। अब चेतराम और उसके गांव के उसके ही जैसे लोग, मकनपुर गांव में रहते हैं। वहां भी वो किसी खाली ज़मीन पर ही रहते हैं, जहां रोज़मर्रा की दिक्कतें हैं। पानी की, शौच की, सफ़ाई की, हर क़िस्म की दिक़्क़त।

चेतराम, बुंदेलखंड के अपने गांव गन्हौली से निकले तो अपने पीछे सात बीघा ज़मीन छोड़कर आए थे। वे बड़े शान से बताते हैं कि उनका इलाका बेमिसाल राजाओं का इलाक़ा रहा है। राजा परमार देव का ज़िक्र करते हुए चेतराम कहते हैं-बड़े लड़इयामहुबे वाले, इनकी मार सही न जाए। ठीक है कि इतिहास में महोबे के वीरों की मार बहुत भारी थी और उन्हें हराना कठिन था लेकिन आज की तारीख़ में पानी ने सबको त्रस्त करके रख दिया है।

चेतराम के इलाक़े में एक के बाद कई एक बरसों तक नियमति बारिश नहीं होने से खेती फ़ायदे का सौदा नहीं रह गया। सात बीघा ज़मीन को बटाई पर लगाकर, काम की तलाश में चेतराम सपरिवार दिल्ली आ गए। बटाई वाली ज़मीन से कुछ मिलता नहीं। दिल्ली में वे ख़ून-पसीना बहाते हुए रिक्शा चलाते हैं। लेकिन उनकी आंखों में गांव वापस जाने का सपना और उम्मीद भी ज़िंदा है।

केन नदी के किनारे ज़िंदगी उम्मीद के सहारे आगे बढ़ती है। शायद इसी ने ज़िंदा रखा था, गढ़ा गांव के प्रह्लाद सिंह को। बड़ी-बड़ी शानदार मूंछों वाले प्रह्लाद सिंह ने अपनी जवानी में किसी का क़त्ल कर दिया था। क़त्ल का जुर्म अदालत में साबित हो गया, 1962 में बांदा ज़िला अदालत ने उन्हें सज़ा-ए-मौत सुनाई। लेकिन, प्रह्लाद सिंह को राष्ट्रपति से जीवनदान मिला और उनकी सज़ा आजीवन कारावास में बदल दी गई।

प्रह्लाद सिंह ने दस साल जेल में काटे थे कि सन बहत्तर में नेकचलनी की वजह से उन्हें वक़्त से पहले रिहा कर दिया गया। प्रह्लाद, गांव लौटे तो नई उम्मीद के साथ ज़िंदगी को दोबारा पटरी पर लाने की कोशिश की। गृहस्थी की गाड़ी चल निकली। 

अभी एक दशक पहले तक सब कुछ ठीक-ठाक था। लेकिन परिवार बड़ा हुआ तो प्रह्लाद सिंह और उनके भाई ने मिलकर ट्रैक्टर के लिए बैंक से कर्ज़ ले लिया। इसी कर्ज़ ने उनके परिवार को बरबाद कर दिया। साल 2002 के बाद बुंदेलखंड का पूरा इलाक़ा लगातार सूखे की गिरफ़्त में आता गया। यह इलाक़ा पहले से ही कम बारिश वाला रहा है, लेकिन लगातार सूखे ने मर्ज़ को तकरीबन लाइलाज बना दिया। प्रह्लाद सिंह की खेती चौपट हो गई। आमदनी का ज़रिया जाता रहा। बैंकों को कर्ज़ दिए गए पैसे वापस चाहिए थे। 

यह बात और है कि यह बैंक सरकारी थे और इस देश में विजय माल्या जैसे कई उद्योगपति हैं जिन्होंने इन्हीं सरकारी बैंकों का पैसा दबा रखा है, और चुकाने के वक्त विदेश चले गए। यह बात भी और है कि देश के 6 हज़ार उद्योगपतियों ने बैंकों से सवा लाख करोड़ का कर्ज़ ले रखा है। उनमें से कोई आत्महत्या नहीं करता, न ही उन पैसों के लिए बैंक कभी हलकान होता है और उनके घर भाड़े के गुंडे भेजता है।

लेकिन गढ़ा गांव के किसान प्रह्लाद सिंह के घर बैंक ने भाड़े के गुंडे भेज दिए। वह साल 2007 था, जब किराए के गुंडों ने बैंक की तरफ़ से प्रह्लाद सिंह के ट्रैक्टर को कब्ज़े में ले लिया। ट्रैक्टर नीलाम कर दिया गया और उसके बाद बची बाक़ी की रकम की देनदारी की आख़िरी नोटिस भी निकाल दी गई।

जिन लोगों ने भारत के किसानों को ज़रा नज़दीक से देखा होगा, उन्हें इस बात का अंदाज़ा होगा कि एक किसान के लिए कितनी अहम होती है, उसकी साख, उसकी इज़्ज़त। खेत सूखे थे, कमाई का एक ज़रिया ट्रैक्टर था, वह भी चला गया। पहले तो प्रह्लाद सिंह के परेशान भाई और फिर उनके बेटे, बच्ची सिंह ने आत्महत्या कर ली। सयानी हो रही पोती मनोरमा चाहती थी कि वह अपने दादा को ब्याह के खर्च से बचाए। मनोरमा भी एक दिन डाई (बालों में लगाने वाला रंग) पीकर हमेशा के लिए सो गई। दिवंगत बेटे और पोती की तस्वीर दिखाते प्रह्लाद सिंह कहते हैं कि उन्होंने राष्ट्रपति से ऐसे बुढ़ापे के लिए क्षमादान नहीं मांगा था।

बुंदेलखंड का एक ख़ुद्दार किसान, कर्ज़ चुकाना तो चाहता है लेकिन प्रह्लाद सिंह जैसे किसानों की मजबूरी है कि जिस खेती पर उन्होंने अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी, वह खेती आज उनके बीज तक वापस नहीं कर पा रही।  प्रह्लाद सिंह की यह कहानी पूरे बुंदेलखंड की सवा दो करोड़ की आबादी की कहानी से कमोबेश मिलती-जुलती है। प्रह्लाद सिंह की ही तरह बाक़ी लोगों की उम्मीदों की डोर टूटने लगी है। कर्ज़ एक तरह से गांव के लोगों के लिए जीने की शर्त बन गए हैं। लेकिन, ये शर्त जानलेवा है।
साभार- मंजीत ठाकुर की किताब 'बुंदेलखंड: बूंद चली पाताल' से।