Friday, 14 September 2018

मौत के मकां

मौत के मकां, खूब हैं यहां
देख लो देख लो खूब गौर से
आ रहे लोग यहां दूर दूर से
न है किसी को पता न किसी को खबर
कितनी रेत डाली है कितनी छोड़ी डगर
बिल्डर ने सारे नियम तोड़ डाले हैं
सीमेंट सरिया हल्की डाली, कच्चे ईंट डाले हैंमौत के मकां, poem
हम गए हम गए तुम भी पहुंच गए
बातों में आके बिल्डर को नोट दे दिए
सोच न सके कुछ भी सोच न सके
हमने एक लिया प्लॉट तुमने दो लिये

प्लॉट के नाम पे फ्लैट दे दिया 
बुरे फंसे बुरे फंसे हमको ठग लिया
मन मसोसकर फिर रहने चले गए
मकां सजा दिए पूजा भी कर दिए
रह रहे थे हम तो खूब शान से
अपने अपने घर में जो आलीशान थे
फिर नज़र लगी किसी कि दिन काला हो गया
जोर का शोर हुआ और गुबार छा गया
चारों ओर चारों ओर हर कोई रो पड़ा
आलीशां आलीशां मकां मेरा ढह गया

मौत आई मौत आई रूह कांप गई
गृहस्थी उजड़ गई ज़िन्दगी बिखर गई
भीड़ आई लोग आए जमघट भी लग गया
देखते देखते सपना वो थम गया
कुछ मरे कुछ दबे कुछ मिले भी नहीं
देखिए आज तो रोशनी भी काली हो गई
सब बिलख बिलख गये मुलाज़िम आ गया
पांच पांच लाख का ऐलान कर गया
मौत सस्ती देख के दिल ये रो गया
हाय हाय हाय क्या से क्या हो गया
जान गई माल गया वज़ूद भी चला गया
वो देखो वो देखो बिल्डर तो हंस रहा।


- रिज़वान नूर खान

Thursday, 13 September 2018

मुर्गे की दावत


गांव के बदलते स्वरूप को आलेख रूपी छोटी-छोटी यादों को समेटे रामधारी सिंह दिवाकर की 'जहां आपनो गांव' किताब हाल ही में साहित्य संसद प्रकाशन दिल्ली से छपकर आई है। किताब में बिहार के अररिया ज़िलें के गांवों का ज़िक्र किया गया है। वहां के हालातों, मजदूरों की मुश्किलों और उनके आधुनिक होने के साथ ही गांव-देहात की अच्छी-बुरी बातों का वर्णन है।

लेखक ने किताब की दूसरी कहानी में हनीफ चाचा को केंद्र में रखा है। हनीफ बुजुर्ग हैं, उनका कोई पक्का रोजगार नहीं है। एक तरह से मजदूर ही हैं। करीब तीन बीवियां और 18 बच्चों का कुनबा है। इसके अलावा कई मुर्गियां और बकरियां हैं। परिवार की जीविका मुश्किल से चलती है। मुर्गे-बकरियों की वजह से आये-दिन पड़ोसियों से कहासुनी होती है। कई बार मारपीट और ख़ूनमखून भी हो चुका है। जबकि कई लोगों से उनकी अच्छी पटती भी है।

हनीफ चाचा का मुर्गा सुबह से नहीं मिल रहा, अब शाम हो गई है। हनीफ और बाकी लोग जानते हैं कि मुर्गा पड़ोसी बनिये ने खुंदक निकलने के लिए पकड़कर छुपा लिया है। हितैषियों के कहने पर हनीफ चाचा थाने में शिकायत करने पहुंचे हैं। दरोगा ने चाचा को सुना, तम्बाकू थूकी और लार टपकाती आंखों से इशारा कर रुपये मांगे। चाचा बनिये को पिटवाना और मुर्गे को वापस पाना चाहते हैं तो कुर्ते की जेब से 20 का नोट निकालकर दे दिया।

बनिये को थाने में दांत-डपट के बाद चार-छै डंडे पड़े तो मुर्गा लाकर दरोगा को सौंप दिया। हनीफ चाचा को अब तसल्ली है। बनिये की बेइज्जती हो गई। थाने से छोड़ने के नाम पर दरोगा और दलालों को जेबें भी गरम हो गईं। तमाशा देखने वालों का मनोरंजन हो गया। हनीफ चाचा मुर्गा लेकर जाने लगे तो दरोगा ने घुड़क दिया और उसे काट-छीलकर लाने को कहा। शाम को थाने में मुर्गे की दावत उड़ी।

इस लड़ाई में न हनीफ चाचा को कुछ हासिल हुआ और न बनिये को कुछ मिला। बल्कि दूसरे-तीसरे लोग मलाई काट गए। करीब दो दशक पुरानी इस घटना ने आज और विस्तार पा लिया है। घूसखोरी और एक-दूसरे से जलने-कुढ़ने की आदत का कैनवास पहले कहीं ज्यादा बड़ा हो गया है।

लेखक रामधारी सिंह दिवाकर कई किताबें, कहानियां लिख चुके हैं। अररिया ज़िले के नरपतगंज गांव के रहने वाले हैं। मिथिला विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हैं। उनकी यह किताब अभी पूरी पढ़ी नहीं है। पढ़ रहा हूं पर अभी तक जितनी पढ़ी है उससे कह सकता हूं कि किताब 'जहां आपनो गांव' में संकलित संस्मरण अच्छे हैं। इसे पढ़ा जाना चाहिए।