Wednesday, 18 September 2019

पाकिस्‍तान से आए रामसे ब्रदर्स ने बॉलीवुड में चलाया भुतिहा सिनेमा, कोई नहीं दे सका टक्‍कर

बॉलीवुड में भुतिहा फिल्‍मों के जनक कहे जाने वाले रामसे ब्रदर्स को उनकी कम बजट की हॉरर फिल्‍मों के मामले में कोई भी निर्माता निर्देशक टक्‍कर नहीं दे पाया। विभाजन के बाद पाकिस्‍तान से सबकुछ छोड़कर आए रामसे ब्रदर्स ने अपनी मेहनत के बलबूते बॉलीवुड में सिक्‍का जमाया। सात भाइयों के ग्रुप रामसे बद्रर्स के श्‍याम रामसे का 18 सितंबर मंगलवार को बीमारी के बाद निधन हो गया। जबकि, एक एक भाई तुलसी कुमार की पिछले साल 2018 में मौत हो चुकी है। रामसे ब्रदर्स फिल्‍म वीराना, पुराना मंदिर, बंद दरवाजा जैसी सुपरहिट रहने वाली फिल्‍मों के लिए जाने जाते हैं।




तीन फिल्‍में फ्लॉप चौथी ने शोहरत दिलाई, सिनेमाघर हाउसफुल हो गए 
पाकिस्‍तान के कराची और लाहौर शहर में इलेक्‍ट्रॉनिक का बिजनेस करने वाले एफयू रामसे को विभाजन के दौरान पाकिस्‍तान छोड़ना पड़ा। पाकिस्‍तान में जमे जमाए काम के छूटने और भारत में आकर बस गए। मुंबई में रहते हुए उन्‍होंने लैमिंग्‍टन रोड पर इलेक्‍ट्रॉनिक का व्‍यापार शुरू किया। हिंदी सिनेमा के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए एफयू रामसे फिल्‍ममेकिंग में उतर गए। इस काम को स्‍टैब्लिश करने में उनके सात बेटों ने बड़ा रोल निभाया। 1954 में उन्‍होंने शहीद ए आजम भगत सिंह, 1963 में रुस्‍तम शोहराब और 1970 में एक नन्‍हीं मुन्‍ही लड़की जैसी फिल्‍मों का निर्माण किया। इन फिल्‍मों को बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी। 1971 में हॉरर फिल्‍म दो गज जमीन के नीचे को बड़ी सफलता हासिल हुई। आलम ये हुआ कि फिल्‍म रिलीज होते ही हाउसफुल हो गई और सिनेमाघर मालिकों को हाउसफुल के बोर्ड टांगने पड़ गए।



बॉलीवुड में भुतिहा फिल्‍मों की नींव रखी
एफयू रामसे के फिल्‍मों में उतरने के साथ ही उनके सभी 7 बेटे भी इंडस्‍ट्री में कूद पड़े और एक साथ मिलकर काम करना शुरू किया। उनके बेटों को बॉलीवुड में रामसे ब्रदर्स के नाम से पहचान मिलने लगी। तीन अच्‍छी कहानियों पर बनाई फिल्‍मों को फ्लॉप और भुतिहा फिल्‍म दो गज जमीन के नीचे को अपार सफलता मिलने के बाद रामसे ब्रदर्स ने दर्शकों की नब्‍ज पकड़ कर हॉरर जॉनर की फिल्‍मों को बनाना शुरू कर दिया। बॉलीवुड में जब फिल्‍मों को 40 से 50 लाख रुपये में बनाया जा रहा था तब रामसे ने सिर्फ 3.5 लाख रुपये में फिल्‍म दो गज जमीन के नीचे बनाकर मोटा रुपया कमा लिया था। उस वक्‍त तक बॉलीवुड में भुतिहा फिल्‍मों पर कोई भी प्रोड्यूसर पैसा लगाने के लिए राजी नहीं होता था। लेकिन रामसे ब्रदर्स ने बॉलीवुड में भुतिहा फिल्‍मों की नीव रखी।



70-80 के दशक में बॉक्‍स ऑफिस के बेताज बादशाह बने 
रामसे ब्रदर्स ने हॉरर फिल्‍मों पर काम जारी रखा और 1980 में दूसरी हॉरर फिल्‍म गेस्‍ट हाउस को पर्दे पर लेकर आए, जिसे खूब पसंद किया गया। बॉलीवुड में हॉरर फिल्‍मों के चलन को शुरू किया और इसे मशहूर भी किया था। 1970 से 1980 के बीच रामसे ब्रदर्स ने दर्जनों हॉरर फिल्‍में बनाईं, जिन्‍हें दर्शकों ने खूब पसंद किया। इसके बाद  वीराना, पुराना मंदिर, पुरानी हवेली, दरवाजा, बंद दरवाजा समेत 30 से ज्‍यादा हॉरर फिल्‍मों को सिनेमाघरों में उतारा। खास बात ये रही कि इन सभी फिल्‍मों ने जबरदस्‍त कमाई की और सुपरहिट श्रेणी में शामिल हो गईं। रामसे ब्रदर्स की आखिरी फिल्‍म 'कोई है' 2107 में आई थी।  7 साल तक धुआंधार चलने वाली टीवी सीरीज जी हॉरर शो के लिए मशहूर हुए श्‍याम रामसे और तुलसी कुमार ने मिलकर इसे बनाया था। श्‍याम रामसे के भाई तुलसी कुमार की 2018 में मौत हो गई। इसके बाद मंगलवार 18 सितंबर को रामसे भाइयों में एक और मुखिया श्‍याम रामसे की मुंबई के एक अस्‍पताल में मौत हो गई।..NEXT


जानिए: मुहर्रम में क्‍यों निकलते हैं ताजिया, कौन था यजीद और किसने किया था इमाम हुसैन का कत्‍ल

कई हजार ईसा पूर्व पैदा हुये अजूबे

पाकिस्‍तान से आए रामसे ब्रदर्स ने बॉलीवुड में चलाया भुतिहा सिनेमा, कोई नहीं दे सका टक्‍कर

Tuesday, 10 September 2019

जानिए: मुहर्रम में क्‍यों निकलते हैं ताजिया, कौन था यजीद और किसने किया था इमाम हुसैन का कत्‍ल


इस्‍लाम धर्म को मानने वालों के लिए मोहर्रम शहादत का महीना माना जाता है। मोहर्रम की 10वीं तारीख को पूरी दुनिया के मुस्लिम इमाम हुसैन की याद में ताजिया और जुलूस निकालते हैं। धार्मिक मान्‍यता केतहत इस महीने में किसी भी तरह के शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं।

इस्‍लामिक नववर्ष का पहला माह शोक का 
मोहर्रम की शुरुआत से ही इस्‍लामिक कैलेंडर की शुरुआत मानी जाती है। मोहर्रम माह की 10वीं तारीख को पैगंबर मोहम्‍मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को कत्‍ल किए जाने से इस माह को शोक के तौर पर जाना जाता है। इस दौरान किसी भी तरह के शुभ कार्यों से बचा जाता है। इस्‍लामिक कैलेंडर में कुल 12 महीने होते हैं। दूसरे महीने को सफर और अंतिम महीने को जुअल हज्‍जा के नाम से जाना जाता है। रमजान का महीना इस्‍लामिक कैलेंडर का सबसे पाक और महत्‍वपूर्ण महीना माना जाता है।


क्रूर यजीद ने विरोधियों को गुलाम बनाया 
मुस्लिम विद्वानों के मुताबिक इस्‍लाम धर्म के पैगंबर मोहम्‍मद साहब के इस दुनिया से परदा करने के बाद उनके अनुयायियों ने सबकुछ संभाल लिया। इस बीच मदीना शहर के पास स्थित 'शाम' जगह जो कि मुआविया शासक के अधीन थी। मुआविया अरब देशों का राजा था। अचानक उसकी मौत के बाद यजीद ने सत्‍ता हथिया ली और खुद को खुदा मानने के लिए लोगों पर दबाव बनाने लगा।

वह चाहता था कि इमाम हुसैन भी उसकी सत्‍ता को स्‍वीकार कर लें तो वह पूरी दुनिया का राजा बन जाएगा। यजीद बेहद क्रूर और जालिम था, उसमें जुआ, शराब समेत सभी तरह के ऐब भरे हुए थे। कुछ लोगों ने उसके डर से उसका कहा मान लिया। इमाम हुसैन और उनके लोगों ने उस धूर्त यजीद की सत्‍ता स्‍वीकार नही की और मदीना शहर में कत्‍लेआम न हो इसलिए शहर छोड़कर इराक की ओर चल पड़े।



करबला का भयंकर युद्ध

मुस्लिम विद्वानों के मुताबिक इमाम हुसैन ने अपने 72 साथियों के साथ मदीना शहर छोड़ दिया और इराक की ओर चल पड़े। इस दौरान उनके साथ छोटे बच्‍चे और महिलाएं भी थीं। जब इमाम हुसैन का लश्‍कर करबला पहुंचा तो यहां पर यजीद की सेना ने उन्‍हें घेर लिया और रसद, पानी का रास्‍ता रोक दिया। यजीद की सेना के साथ 10 दिनों तक इमाम हुसैन के लश्‍कर ने युद्ध लड़ा।


हर दिन इमाम के लश्‍कर का एक योद्धा मैदान में पहुंचता और यजीद की सेना के पैर उखाड़ देता। भूखे प्‍यासे इमाम हुसैन के 72 साथियों को धीरे-धीरे यजीद के सैनिकों ने धोखा देकर कत्‍ल कर दिया। मोहर्रम की 10 तारीख को इमाम हुसैन को भी यजीद ने कत्‍ल कर दिया। युद्ध के दौरान मात्र 6 महीने के असगर अली को भी शहीद कर दिया गया। इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शहादत की याद में दुनियाभर में शोक मनाया जाता है और मोहर्रम की 10 तारीख को ताजिया और जुलूस निकाले जाते हैं।

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Thursday, 29 August 2019

बच्‍चा चोर : अफवाह या सच

बच्‍चा चोर : अफवाह या सच 

इन दिनों मेरे शहर कानपुर में बच्‍चा चोरी की अफवाह बहुत तेजी से फैल रही है। कुछ समय पहले उत्‍तर प्रदेश में ऐसी अफवाह फैली कि जो भी रात में सोया तो वह पत्‍थर का बन जाएगा। लाखों लोगों तक पहुंची इस सूचना के चलते लोग रात भर जागते रहे।

इसी तरह 2012 में दुनिया के ख़तम होने की अफवाह फैली। कानपुर समेत कई इलाकों में मुहनुच्वा, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब में कलाबंदर की अफवाह, चोटी कटवा समेत कई तरह की अफवाहों को देशभर में फैलते देखा गया। अब बच्चा चोर की अफवाह महाराष्ट्र के कई शहरों से होते हुए राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीगढ़ के बाद यूपी के कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, उन्नाव, कानपुर देहात समेत कई शहरों में फैल चुकी है।


इन अफवाहों में शेयर की जाने वाली तस्वीरें, वीडियो, आंकड़े और सूचना झूठी और गलत होती है। ऐसी अफवाहों को सच साबित करने के लिए कुछ ऐसे वीडियो शेयर किए जाते हैं, जिनमें आरोपी को पीटा गया होता है और वह बदहवासी की हालत में होता है। इस स्थिति में भीड़ के कुछ लोग उसे आरोपी बता रहे होते हैं। आरोपी को भीड़ बोलने ही नहीं देती और उसे लगातार पीटा जा रहा होता है। ऐसे में आप भीड़ की बात को सही मान लेते हैं।

अफवाह की सामग्री में कुछ फोटोशॉप की गई तस्‍वीरें होती हैं। जो असल में किसी दूसरे देश या जगह में कभी किसी दुर्घटना, हादसे, दंगे की होती हैं। इनको अफवाह के साथ की घटना का अंश बता दिया जाता है। कुछ तस्‍वीरों में किसी शख्‍स की आवाज भी सुनाई दे रही होती है जो उसे संबंधित घटना के साथ जोड़ते हुए सही बता रहा होता है।

कई मामलों में वीडियो किसी दूसरे देश, जगह, घटना, के होते हैं, जिन्‍हें वर्तमान अफवाह के साथ जोड़ कर दिखाया जाता है। कुछ अफवाह सामग्री में टेक्‍स्‍ट मैटर और आंकड़े भी लिखे होते हैं जो गलत होते हैं। वाट्सएप के जरिए लोगों तक एक साथ ऐसी सामग्री पहुंचती है तो वह उसे सही मान लेते हैं।

किसी भी तस्‍वीर, वीडियो या वाइस ओवर या बयान में पुख्‍ता जानकारी नहीं दी जाती है। जैसे, वह तस्‍वीर किस शहर, समय और मामले की है। तस्‍वीर में दिख रहे लोग कौन हैं, उनका नाम पता क्‍या है। तस्‍वीरों में दिखने वाली पुलिस किस शहर की है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि पुख्‍ता जानकारी मिलने पर आप उसे सर्च करके जांच लेंगे और मामले को पहचान जाएंगे कि यह तो झूठ है।

जानकार लोग बताते हैं कि इस तरह की अफवाहों के जरिए लोगों को डराने, भड़काने, द्वेष, नफ़रत फैलाने और लोगों को एक तरह की सोच बनाने के इरादे से किया जाता है। इन अफवाहों के कारण लोग आक्रामक हो जाते हैं और बिना सच्‍चाई जाने आरोपी को पीटने और मार डालने पर आमादा हो जाते हैं। यहां तक कि उस व्‍यक्ति की हत्‍या कर देते हैं। इस तरह के वीडियो अक्सर सोशल मीडिया पर तैरते दिख जाते हैं।

अफवाह के जरिए एक भीड़ को तैयार किया जाता है जो किसी को भी पीटने, हत्या करने को तैयार रहती है। आप इस हत्यारी भीड़ का हिस्सा ना बनें। अगर कोई ऐसी घटना सामने आती है तो जो भी लोग आरोपी हैं उन्हें मारने की बजाय पकड़कर रखें, पूछताछ करें और संबंधित पुलिस को तत्काल सूचना दें, खुद ही हत्यारे न बनें।

इस तरह की अफवाहों पर ध्यान न दें। हां, अपने बच्चों की सुरक्षा के मद्देनजर अभिभावकों को सतर्क रहने की जरूरत है। वह बच्चों के स्कूल, खेलने की जगहों, उनके आने जाने वाले रास्तों पर निगरानी जरूर रखें।

Monday, 1 April 2019

एमएस धोनी से लगान तक क्रिकेट पर खूब बनी फिल्‍में, कई ने रिकॉर्ड तोड़े

रिजवान नूर खान 
इन दिनों खेलप्रेमी आईपीएल की खुमारी में डूबे हैं। हालात ये हैं कि कई शहरों में शाम को क्रिकेट मैच शुरू होते ही सड़कों पर सन्‍नाटा होने लगता है। रविवार को दो मैच होने के चलते कई जगह तो खेलप्रेमी काम जल्‍द खत्‍म कर टीवी के सामने बैठ जाते हैं। लोगों के बीच क्रिकेट की इस दीवानगी को भुनाने में बॉलीवुड कभी पीछे नहीं रहा है। अब तक क्रिकेट पर केंद्रित कई फिल्‍में आ चुकी हैं और ज्‍यादातर फिल्‍में हिट रही हैं। कई ने तो कीर्तिमान गढ़े हैं। कुछ फिल्‍मों के सीक्‍वल भी आने वाले हैं। आज हम ऐसी ही टॉप फिल्‍मों के बारे में आपको बताएंगे।

एमएस धोनी : द अनटोल्‍ड स्‍टोरी

क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के जीवन पर केंद्रित फिल्‍म एमएस धोनी: द अनटोल्‍ड स्‍टोरी बेहद लोकप्रिय साबित हुई। साल 2016 में रिलीज हुई ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर जबरदस्त हिट रही थी। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 216 करोड़ रुपये कमाई की थी। नीरज पांडेय द्वारा निर्देशित इस फिल्‍म में सुशांत राजपूत ने एमएस धोनी का किरदार निभाया है। इस फिल्म के गाने भी खासे सुपरहिट रहे थे। खबरों के मुताबिक इस फिल्‍म का सीक्वल भी जल्‍द आने वाला है।


लगान

लगान आशुतोष गोवरिकर की मास्‍टरपीस फिल्‍म मानी जाती है। क्रिकेट पर केंद्रित यह फिल्‍म बेहद लोकप्रिय हुई और बॉक्‍स ऑफिस के कई रिकॉर्ड तोड़ दिए। फिल्‍म में आजादी से पहले का घटनाक्रम दिखाया गया है। दोगुना लगान माफ कराने के लिए किसान अंग्रेजों से क्रिकेट मैच खेलते हैं। किसानों के क्रिकेट सीखने से लेकर अंग्रेजों से मैच जीतने के संघर्ष की यह कहानी सिनेमाप्रेमी खूब पसंद करते हैं। इस फिल्‍म ने बॉक्‍स ऑफिस समेत लोकप्रियता में झंडे गाड़ दिए। आमिर खान और ग्रेसी सिंह ने मुख्‍य भूमिकाएं निभाईं। ग्रेसी सिंह की यह डेब्‍यू फिल्‍म थी।


इकबाल

इकबाल फिल्‍म क्रिकेटर बनने का सपना पालने वाले एक गूंगे युवक के संघर्ष पर केंद्रित है। श्रेयस तलपड़े का किरदार इकबाल में क्रिकेट का गजब टैलेंट है। वह भारतीय टीम में तेज गेंदबाज की भूमिका में क्रिकेट खेलने की इच्‍छा रखता है। गूंगा होने की वजह से इकबाल के पिता उसके इस शौक से गुस्‍सा रहते हैं। हालांकि, इकबाल की छोटी बहन उसे क्रिकेटर बनने में हरसंभव मदद करती। भारतीय टीम का हिस्‍सा बनने के लिए इकबाल के संघर्ष को इस फिल्‍म में बखूबी पेश किया गया है। 2005 में रिलीज हुई इस फिल्‍म का निर्देशन और लेखन और नागेश कुकुनूर ने किया है। श्रेयस तलपड़े, नसीरुद्दीन शाह, गिरीश करनाड आदि ने फिल्‍म में मुख्‍य किरदार निभाए हैं। 



जन्‍नत

क्रिकेट में होने वाली सट्टेबाजी पर केंद्रित यह फिल्‍म इमरान हाशिमी की हिट फिल्‍मों में शुमार है। फिल्‍म की कहानी में इमरान हाशिमी का किरदार अपराध की दुनिया में लिप्‍त है। उसमें क्रिकेट मैच के दौरान कब क्‍या होने वाला है इसका आभास होने की खूबी है। अपने इस हुनर के बल पर वह बुकी बन जाता है। धीरे धीरे वह क्रिकेट में सट्टेबाजी के खेल में गहरे तक पहुंच जाता है। क्रिकेट के काले हिस्‍से को बयान करती इस फिल्‍म के गाने दर्शकों को खूब पसंद आए थे। इस फिल्‍म की सफलता के बाद इसका सीक्‍वल भी बनाया गया।

विक्‍ट्री

इस फिल्‍म के जरिए निर्देशक ने यह बताने की कोशिश की है कि किस तरह से सफलता का घमंड आदमी को मिट्टी में मिला देता है। हरमन बावेजा इस फिल्‍म में मुख्‍य किरदार में हैं। वह एक गांव के युवा हैं जो बड़ा क्रिकेटर बनने का सपना पालता है। भारतीय टीम का हिस्‍सा बनने के बाद सफलता उसके कदम चूमती है। इस सफलता का उसे अहंकार हो जाता है और वह मुश्किल दिनों में साथ देने वालों को भूल जाता है। धीरे-धीरे उसका प्रदर्शन गिरने लगता है और वह भारतीय क्रिकेट टीम से बाहर कर दिया जाता है। यह फिल्‍म बॉक्‍स आफिस बहुत कमाल नहीं कर सकी थी।


इन फिल्‍मों का कथानक भी क्रिकेट रहा

इन फिल्‍मों के अलावा क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर पर बनी बायोपिक और क्रिकेटर अजहरुद्दीन पर बनी अजहर फिल्‍म भी खूब चर्चा में रही। किक्रेट बैकड्रॉप पर बनी फिल्‍म काय पोचे, दिल बोले हडिप्‍पा, हैट्रिक, पटियाला हाउस, से सलाम इंडिया, अव्‍वल नंबर समेत कई ऐसी फिल्‍में रिलीज हुईं, जिनका बैकग्राउंड क्रिकेट पर केंद्रित रहा। 

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Monday, 25 March 2019

दलित और मुस्लिम देते हैं सहारनपुर लोकसभा सीट को सहारा


रिजवान नूर खान 

सहारनपुर संसदीय सीट पर लोकसभा चुनाव के लिए नामांकन प्रक्रिया सोमवार 18 मार्च को शुरू हो गई। इसके साथ ही सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र में राजनीतिक सरगर्मी भीअपने चरम पर पहुंच गई है। यह सीट कई मायनों में सभी राजनीतिक दलों के लिए अहम है। पहले चरण में 11 अप्रैल को इस निर्वाचन क्षेत्र में मतदान होना है। संभावित प्रत्याशियों ने लोगों को लुभाने के लिए वादों का जाल फेंकना शुरू कर दिया है। ऐसे में यहां सभी प्रमुख दलों ने अपनी जीत पक्की करने के लिए कमर कस ली है। आइए जानते हैं पहले लोकसभा चुनाव से लेकर अबतक सहारनपुर लोकसभा के राजनीति सफर के बारे में-  


इस लिंक पर पढ़े विश्‍लेषण....


सबसे ज्यादा पांच बार राशीद बने सांसद

सहारनपुर लोकसभा सीट पहले लोकसभा चुनाव से ही कांग्रेस का गढ़ बन गई। यहां 1952 से 1971 तक लगातार चार लोकसभा चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशियों ने विजयी पताका फहराया। कांग्रेस के इस विजय अभियान को जनता पार्टी सेक्यूलर के नेता राशीद मसूद ने रोका। इस लोकसभा क्षेत्र से सबसे ज्यादा पांच बार राशीद मसूद सांसद चुने गए। खास बात यह रही कि वह चार बार पार्टी बदलकर चुनाव लड़े और जीते। इस लोकसभा सीट पर समाजवादी पार्टी को सिर्फ एक बार ही जीत का स्वाद चखने को मिला है, जबकि बहुजन समाज पार्टी दो बार यहां से जीती है और भाजपा तीन बार इस सीट पर विजेता बनी है।

दूसरे लोकसभा चुनाव में मिला स्वतंत्र सीट का नाम

दलित और मुस्लिम बाहुल्य यह क्षेत्र 1951 में हुए पहले लोकसभा चुनाव के दौरान दो लोकसभा क्षेत्रों में बंट गया था। इस क्षेत्र का एक हिस्सा देहरादून जिला और बिजनौर उत्तर-पूर्व लोकसभा सीट का हिस्सा था, जबकि दूसरे हिस्‍से का नाम सहारनपुर पश्चिम और मुजफ्फरनगर उत्तर लोकसभा सीट था।1957 में हुए लोकसभा चुनाव से पहले इस निर्वाचन क्षेत्र को दोबारा गठित कर सहारनपुर लोकसभा का नाम दिया गया। 1957 में दूसरी लोकसभा के चुनाव में इस क्षेत्र से कांग्रेस ने अजीत प्रसाद जैन और सुंदरलाल को चुनाव लड़ाया था। अजीत प्रसाद को 202081 लाख वोट मिले, जबकि सुंदर लाल को 161181 लाख वोट मिले। दोनों उम्मीदवारों को विजेता घोषित किया गया। गौरतलब है कि संभवत: उस वक्त लोकसभा क्षेत्र का आकार बड़ा होने के चलते दो विजेता घोषित किए गए थे और यह स्थिति देश के 40 से अधिक लोकसभा क्षेत्रों की थी। इस सीट पर निर्दलीय लड़े अख्तर हसन ख्वा़जा 138996 लाख वोटों के साथ दूसरे नंबर पर रहे थे।

जब पांच लाख वोटों से जीती थी कांग्रेस

1962 में सहारनपुर लोकसभा अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थी। कांग्रेस की लहर में इस निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर लड़े सुंदर लाल ने 104709 लाख वोट हासिल करकेजीत दर्ज की। उन्होंने जनसंघ के ममराज को पांच लाख से ज्यादा वोटों के अंतर सेहराया था। इसी तरह 1967 के चुनाव में भी कांग्रेस से लड़े सुंदर लाल ने 120891 लाख वोट हासिल कर जीत दर्ज की। सम्युक्त सोशलिस्‍टपार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे एस सिंह 83239 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे। कांग्रेस की जीत का यह सिलसिला 1971 में भी चला। 1977 में छठी लोकसभा के लिए हुए मतदान में यहां कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। कांग्रेस की लहर यहां थम गई। भारतीय लोकदल के उम्मीदवार राशीद मसूद ने कांग्रेस प्रत्याशी जाहिद हसन को करारी शिकस्त दी। राशीद मसूद सातवीं लोकसभा के लिए 1980 में भी सहारनपुर से सांसद चुने गए। वह जनता पार्टी सेक्यूलर के टिकट पर चुनाव लड़े थे।

दो बार की हार के बाद जीती कांग्रेस

1984 में कांग्रेस ने सहारनपुर सीट पर पलटी मारी और दो बार की हार के बाद जीत हासिल की। कांग्रेस के यशपाल सिंह को 277339 लाख वोट मिले,  जबकि भारतीय लोकदल प्रत्याशी राशीद मसूद को 204730 लाख वोट हासिल हुए। इसके बाद 1989 और 1991 के लोकसभा चुनाव में राशीद मसूद जनता दल प्रत्याशी बने और जीत हासिल की। कांग्रेस दोनों बार यहां दूसरे नंबर पर आई। इस बीच भाजपा नेदेश की राजनीति में बढ़त बनाते हुए 1996 और 1998 में सहारनपुर सीट को अपने नाम कर किया।

1999 में बसपा ने दर्ज की जीत

1999 में 13वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में सहारनपुर सीट पर बसपा ने जीत हासिल की। यहां रालोद के राशीद मसूद ने बसपा उम्मीबदवार को कड़ी टक्कर दी। उन्हें 213352 लाख वोट मिले, जबकि विजेता बसपा प्रत्याशी मंसूर अली खान को 235659 लाख वोट मिले। कई दल बदलने वाले राशीद मसूद ने 2004 का लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी के टिकट पर लड़ा और जीत हासिल की। राशीद को बसपा प्रत्याशी मंसूर अली खान ने कड़ी टक्कर दी। राशीद को 353271 लाख वोट मिले, जबकि मंसूर को 326441 लाख वोट प्राप्त हुए। 15वीं लोकसभा के लिए 2009 में सहारनपुर सीट पर बसपा ने कब्जा जमाया। उसके प्रत्याशी जगदीश सिंह राणा को354807 लाख वोट पाए, जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी सपा नेता राशीद मसूद को 269934 लाख वोट मिले।

16 साल बाद भाजपा को मिली जीत

16वीं लोकसभा के लिए 2014 के चुनाव में मोदी लहर का असर रहा और सहारनपुर सीट पर भाजपा को 16 साल बाद जीत नसीब हुई। इससे पहले भाजपा 1998 में इस सीट से चुनाव जीती थी। 2014 में भाजपा प्रत्याशी राघव लखनपाल को 472999 लाख वोट मिले, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस नेता इमरान मसूद को 407909 लाख वोट हासिल हुए।

राजा सहारन पीर ने बसाया था सहारनपुर

सहारनपुर की स्थापना 1340 के आसपास हुई और इसका नाम एक राजा सहारन पीर के नाम पर पड़ा। सहारनपुर की काष्ठ कला और देवबन्द दारूल उलूम विश्वपटल पर सहारनपुर को अलग पहचान दिलाते हैं। सहारनपुर में प्राचीन शाकुम्भरी देवी सिद्धपीठ मंदिर, इस्लामिक शिक्षा का केन्द्र देवबन्द दारूल उलूम, देवबंद का मां बाला सुंदरी मंदिर, नगर में भूतेश्वर महादेव मंदिर औरकम्पनी बाग इसके प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। लकड़ी पर नक्काशी करने का काम सहारनपुर में काफी अधिक होता है। लखनऊ से इसकी दूरी 702.6 किलोमीटर और दिल्ली से करीब 200 किलोमीटर है।

Thursday, 21 March 2019

लोकसभा चुनाव 2019: जाट और मुस्लिम तय करते हैं कैराना की किस्मत, इस बार करारा संघर्ष

रिजवान नूर खान 

कैराना संसदीय सीट के लिए 18 मार्च (सोमवार) से नामांकन प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। परंपरागत रूप से रालोद के लिए खास रही इस सीट पर इस बार भी कांटे का मुकाबला है। मुस्लिम और जाट बाहुल्यस इस निर्वाचन क्षेत्र में राजनीतिक दलों का जातीय समीकरण बैठाने का गणित जनता अक्सलरगलत साबित करती रही है। यही वजह है कि 2014 में यहां से जीते भाजपा के हुकुम देव सिंह के निधन के बाद हुए उपचुनाव में रालोद की प्रत्याशी तबस्सुम हसन ने भाजपा को शिकस्त  दे दी। यहां हम कैराना लोकसभा क्षेत्र की पूरी चुनावी और राजनीतिक तस्वीतर आपके सामने पेश कर रहे हैं-

आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा के साथ हुए चुनावी गठबंधन में रालोद के हिस्सें में यह सीट गई है। यहां पहले चरण में 11 अप्रैल को मतदान होना है।


दो बार से अधिक नहीं मिली किसी को जीत

कैराना लोकसभा सीट का इतिहास रहा है कि यहां पर कोई भी दल दो बार से ज्यादा लगातार जीत हासिल नहीं कर सका है। मुस्लिम और जाट बाहुल्य इस निर्वाचन क्षेत्र में राजनीतिक दलों का जातीय समीकरण बैठाने का गणित जनता अक्सर गलत साबित करती रही है। ऐसा इसलिए क्यों कि इस सीट पर किसी भी दल का कभी भी वर्चस्व नहीं रहा है। यहां की जनता हर बार परिवर्तन कर काबिज दल को बाहर कर देती है। यह सिलसिला पहले लोकसभा चुनाव से चला आ रहा है। यहां पर कांग्रेस की लहर के बावजूद पहले लोकसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी ने भारी मतों से जीत हासिल कर कांग्रेस को हराया था। बाद में यहां जनता दल के प्रत्याशी ने लगातार दो बार 1989 और 1991 में जीत हासिल की, लेकिन तीसरी बार वह जीत नहीं सके। इसी तरह यह कारनामा अजीत सिंह चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल ने 1999 और 2004 में कर दिखाया, लेकिन वह भी तीसरी बार लगातार जीत हासिल नहीं कर सके। अब तक भाजपा, बसपा और सपा, जनता पार्टी सेक्युलर ने इस लोकसभा सीट पर सिर्फ एक-एक बार ही जीत दर्ज की है।

 

जब नहीं चली कांग्रेस की लहर, निर्दलीय ने चटाई धूल 

देश के लिए तीसरी बार हुए लोकसभा चुनाव के दौरान अस्तित्व में आई कैराना लोकसभा सीट जाट और मुस्लिम समुदाय बाहुल्य होने के चलते कड़े चुनावी मुकाबलों की गवाह रही है। 1962 में जब देश भर में कांग्रेस की लहर चल रही थी, तब यहां से कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी थी। 1962 में पहली बार इस लोकसभा सीट पर हुए मतदान में निर्दलीय उम्मीदवार यशपाल सिंह ने उस समय देश की सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस के दिग्गज नेता अजीत प्रसाद जैन को हराया था। यशपाल को 134574 लाख वोट मिले, जबकि अजीत को 81140 वोट मिल थे। गौरतलब है कि अजीत प्रसाद जैन 1951 में सहारनपुर लोकसभा सीट से सांसद रह चुके थे।

1967 में जातीय समीकरण ने खिलाया गुल 

1967 में जब चौथी लोकसभा के गठन के लिए चुनाव कराए गए, तब कैराना सीट पर दूसरी बार संसदीय चुनाव हुआ। देश भर में वर्चस्व कायम रखने वाली कांग्रेस ने एक बार फिर यहां से अजीत प्रसाद जैन को चुनाव मैदान में उतारा। उनके सामने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने जीए खान को प्रत्याशी बनाया। दोनों नेताओं के बीच कड़ा संघर्ष हुआ। जीए खान ने 76415 वोट पाकर जीत हासिल की। अजीत को 74750 वोट मिले। दोनों के बीच हार का अंतर दो हजार से भी कम वोटों का रहा। 1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने एक बार फिर चुनावी मैदान में ताल ठोकी और जातीय समीकरण का लाभ लेने के लिए मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट थमाया। इसका नतीजा भी कांग्रेस के लिए खुशियां लेकर आया। कांग्रेस उम्मीदवार शफकत जंग ने 162276 लाख वोट हासिल किए, जबकि भारतीय क्रांति दल के प्रत्याशी गयूर अलीखान को 89510 वोट के साथ हार का सामना करना पड़ा।

आपातकाल ने कांग्रेस को दिया था जोर का झटका

कैराना सीट पर 1977 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के लिए बेहद खराब रहा। यहां से तत्कालीन सांसद शफकत जंग अपनी सीट नहीं बचा सके। उन्हें लोकदल के प्रत्याशी चंदन सिंह ने करारी शिकस्त दी। चंदन को 242500 लाख वोट हासिल हुए, जबकि कांग्रेस के शफकत को 95642 वोट ही मिले। 1980 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी सेक्यूलर की नेता गायत्री देवी ने 203242 लाख वोटों के साथ विजेता बनीं। कांग्रेस इंदिरा के प्रत्याशी नारायण सिंह 143761 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे। 1984 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस ने जीत हासिल की। कांग्रेस प्रत्याशी अख्तर हसन 236904 वोटों के साथ विजेता बने। लोकदल प्रत्याशी श्याम सिंह 138355 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे।

1989 में जनता दल ने की फतह 

1989 का लोकसभा चुनाव इस सीट से जनता दल प्रत्याशी हरपाल सिंह ने 306119 लाख वोटों के साथ जीता। प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस नेता बशीर अहमद 184290 लाख वोट पाकर हार गए। जनता दल ने 1991 का चुनाव भी इस सीट से अपने नाम किया। हालांकि1996 में कैराना सीट पर समाजवादी पार्टी ने जीत हासिल की। इस बार सपा नेता मुनव्वर हसन ने 184636 लाख मत पाकर जीत दर्ज की,जबकि दूसरे नंबर पर रहे भाजपा नेता उदयवीर सिंह को 174614 मतों से ही संतोष करना पड़ा। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी और एलके आडवाणी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में भाजपा की लहर चली। इस तरह दो बार से हार का सामना कर रही भाजपा ने कैराना सीट अपने नाम की। यहां से उसके प्रत्याशी वीरेंद्र वर्मा के जीत मिली और सपा नेता मुनव्वर हसन को हार का सामना करना पड़ा।

इस बार रालोद ने भाजपा से लिया बदला 

1999 में 13वीं लोकसभा के लिए हुए मतदान में कैराना लोकसभा क्षेत्र की जनता ने राष्ट्रीय लोकदल पर विश्वास जताया और उसके प्रत्याशी आमिर आलम 206345 लाख वोट पाकर विजेता बने। दूसरे नंबर पर यहां से बीजेपी के निरंजन सिंह मलिक रहे। 2004 के लोकसभा चुनाव में भी राष्ट्रीय लोकदल ने अपना जादू कायम रखा और उसकी अनुराधा शर्मा को भारी मतों से जीत मिली। रालोद की जीत का यह सिलसिला ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका। 2009 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने सेंध लगाते हुए सीट रालोद से यह सीट हथिया ली। बसपा प्रत्यााशी तबस्सुम बेगम ने 283259 लाख वोट पाकर विजेता बनीं। दूसरे नंबर पर 124802 लाख वोट पाकर सपा नेता साजन मसूद रहे। कांग्रेस तीसरा और भाजपा को चौथा स्थान हासिल हुआ। 2014 में भाजपा ने यहां पलटी मारी और कैराना लोकसभा सीट पर कब्जा जमाया। यहां से भाजपा नेता हुकुम देव सिंह ने भारी मतों से जी‍त हासिल की। उनका असमय निधन होने के बाद यहां हुए उप चुनाव में भाजपा ने यह सीट गंवा दी। यहां से सपा और रालोद की गठबंधन प्रत्या शी तबस्सुम हसन ने फिर जीत हासिल की।

कर्णपुरी के नाम से जाना जाता था कैराना  

कैराना उत्तर प्रदेश के 80 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में से एक है। कैराना प्राचीन काल में कर्णपुरी के नाम से जाना जाता था, जो बाद में बिगड़कर किराना नाम से जाना गया और फिर कैराना हो गया। मुजफ़्फ़रनगर से करीब 50 किलोमीटर पश्चिम में हरियाणा पानीपत से सटा यमुना नदी के पास बसा कैराना राजनीतिक पार्टी राष्ट्रीय लोकदल का घर भी माना जाता है। यहां मुस्लिम और जाट मतदाताओं की संख्या अधिक है। हालांकि यह जातिगत आंकड़ा हर बार एक जैसा चुनावी फैसले नहीं करता है। इस लोकसभा क्षेत्र के तहत पांच विधानसभा क्षेत्र आते हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से कैराना की दूरी करीब 103 किलोमीटर है।

इस आर्टिकल को दैनिक जागरण की वेबसाइट पर भी पढ़ा जा सकता है। लिंक ये रहा.....
https://www.jagran.com/elections/lok-sabha-lok-sabha-election-2019-know-everything-about-kairana-lok-sabha-seat-19061340.html

Thursday, 17 January 2019

बकरी और अबरार का दर्द

बकरियां बुरी तरह डरी हुई हैं। अभी रात के दो बज रहे हैं। उनके शोर से घर के सभी लोग जग गए हैं। मुहल्ले में भी जनसर हो गई। पहले बड़ी वाली बकरी ही चिल्ला रही थी, धीरे धीरे पांचों बकरियां शोर करने लगीं। मैं इस्माइल के घर में हूं। उसके घर के बरोठे का ये नजारा वाकई में सबके लिए चौकाने वाला है। लेकिन कोई समझ कुछ नहीं पा रहा है। उसके अब्बा (बाबा) जग तो गए हैं लेकिन मच्छरदानी से बाहर नहीं निकलना चाहते। दरअसल बरोठे में जहां बकरियां बंधीं हैं वहां मच्छर कुछ ज्यादा हैं। वे चारपाई से ही सबको हांक रहे हैं, सब अपने-अपने घर जाओ, भीड़ मत बढ़ाओ। बकरियां अपने आप चुप हो जाएंगी। उनकी ऐसी बेरुखी से कुछ लोग जा चुके हैं, कुछ जा रहे हैं।

बकरियों का यूं चिल्लाना अबरार से सहन नहीं हो रहा। इससे पहले उसने अपनी बकरियों को यूं सहमते नहीं देखा। वही तो है जो बकरियों को खेतों में चराने ले जाता है। वह आठ साल का है। बकरियां उसे बहुत प्यारी हैं। एकतरह से बकरियां उसकी दोस्त हैं। स्कूल से आते ही कडुए तेल से चुपड़ी और बुकनू लगी रोटी ले वह उन्हें चराने चल देता है। मुहल्ले के लोग उसे नन्हा बरेदी कहते हैं। ग्रामीण इलाकों में बकरियां पालने वाले को बरेदी कहा जाता है। बकरियां अभी भी सहज नहीं हुई हैं। अबरार सुबक रहा है। उसने सभी बकरियों के नाम रखे हैं। जो सफेद-काली है उसे चितकबरी, जो लाल-काली है उसे लालमनी और छोटी वाली बकरी को वह छुनिया बुलाता है। इसी तरह बाकी बकरियों के भी नाम रखे हैं। छुनिया बाकी बकरियों की तरह नहीं चिल्ला रही बस बीच-बीच म्हे कर देती है। पर इस म्हे में दर्द बहुत है। छुनिया गर्भ से है, कुछ ही महीनों में वह भी मां का सुख भोगेगी। अबरार की सुबकन मुझसे नहीं देखी जा रही। बाकी लोग भी द्रवित हैं।

सुनातर या बरजतिया देख लिया होगा तभी चिल्ला रही हैं, अभी चुप हो जाएंगी, सोओ जाके सब लोग बतंघड़ न बनाओ, मंझली चच्ची गुस्से में सबसे बोलीं और दांत में दुपट्टा दबाके सोने चली गईं। सुनातर और बरजतिया सापों को कहा जाता है। सुनातर को सुनाई नहीं देता और बरजतिया काफी बड़ा होता है, तेज भागता है। गांवों में अक्सर ये सांप देखे जाते हैं, लेकिन वे बिरले ही लोगों को काटते हैं। वे चूहों के शिकार के लिए घरों में आ जाते हैं। ज्यादातर भूसा वाली कुठरिया में लकड़ी या कंडों के बीच छिप जाते हैं।

इस बीच राजू चाचा बोले चिटकान्हा हुई सकत है। धत्त झटिहा सार, भाग हेन ते बड़ा आओ बतावन चिटकान्हा हुई सकत है। अब्बा के अईसे गरियाने से राजू चाचा सकपका गए और धीरे से वहां से खिसक लिए। अब्बा मुहल्ले भर के अब्बा हैं, वे सब पे अपना हक जताते हैं। इसलिए उन्हें ज्यादातर लोग अब्बा ही कहते हैं। अब्बा का पारा गरम देख सब बगलें झांकने लगे और जाने को हुए कि तभी हवा का तेज झोंका आया और किवाड़े के बगल में ताक पर जल रहे चराग को बुझा गया। अब बरोठे में घुप्प अंधेरा हो गया। बकरियां जो थोड़ा सा चुप हुईं थीं अब फिर से चिल्लाने लगीं। अब्बा पहले से ही गुस्साए थे अंधियारा होने पर और तेजी से चिल्लाए, चराग कौन जलाएगा।

रहमान आंगन की तरफ भागा और चारपाई में बिछे बिस्तर में माचिस टटोलने लगा। चूल्हे के पास देख जा के वहीं रखी है माचिस, अम्मा ने जोर से कहा। रहमान ने चूल्हे के पास, पखिया और खाना रखने वाली दीवार में बनी टीपारी में माचिस ढूंढी पर न मिली। 
बाहर जा मेरे बिस्तर में सिरहाने रखे कुर्ते में माचिस है ले के आ, अब्बा ने गरजते हुए कहा। रहमान ने कुर्ते से माचिस निकाल ली। उसने साथ में बालक बंडल से चार ठो बीड़ी भी निकालकर जेब में छिपा लीं। रहमान 15 बरस का है। गांव के अधिकांश किशोरवय लड़के बीड़ी और स्वागत तम्बाकू खाने लगे हैं। कुछ वक्त पहले गांव के भोला और महेश अपने पापा की बीड़ी चुराकर फूंकते पकड़े गए थे तो बहुत मार पड़ी थी। तब से सब नशा-पत्ती से दूर थे। लेकिन अब के छिटांक-छिटांक भर के लड़के चौधरी और पॉवर गुटखा भी खाते हैं, लेकिन छिप-छिपाकर। दांत लाल हो गए हैं, उन्हें साफ करने के लिए एक-एक घंटे तक नीम की दातून घिसते हैं। ज्यादातर नदिया किनारे बीड़ी पीने जाते हैं। कई सुबह शौच से पहले बीड़ी पीते हैं। बीड़ी नहीं मिलती तो उनका पेट साफ नहीं होता है। गांव के ज्यादातर मर्द नदी किनारे खुले में शौच करने जाते हैं। युवाओं की संख्या इनमें ज्यादा है। किसी-किसी के घर में ही शौचालय है।

अब्बा ने झिड़कते हुए रहमान के हाथ से माचिस छीनी और चराग जलाया। अभी एक मिनट भी न हुआ था कि चराग मद्धम होते हुए बुझने लगा। उन्होंने चराग हिलाया तो उसमें तेल खत्म हो गया था। अब वे फिर चिल्लाये, कोई काम ढंग से नहीं हो पाता है। न जाने का करेंगे सब। अब्बा और चिल्लाते इससे पहले ही अम्मा बोल पड़ीं- मिट्टी का तेल खत्म हो गया है। अबकी महीने में कोटेदार ने दुई लीटर तेल ही दिया था। एक चराग आप छपरा तरे रखते हो, दूसरा चूल्हे के पास रहता है जो बाद में रहमान और अबरार पढ़ने के लिए उठा ले जाते हैं और तीसरा बरोठे में बकरियों के पास जलता है, तीन ही चराग तो हैं घर में। इतना कहते-कहते अम्मा झुंझला गईं और आंगन में बिछी चारपाई पर जाके धम्म से बैठ गईं। ये सुनकर अब्बा का चेहरा और तमतमा गया। बोले-पब्लिक के लिए साला आता 5 लीटर तेल है पर मिलता तीन लीटर ही है, उसमें भी किसी-किसी महीने तो कोटेदार तेल गोल कर जाता है। अबकी तो दुई लीटर ही दिया हरामखोर ने। राशन के भी यही हाल हैं। मनमर्जी चल रही है सबकी। सब खुदै का अधिकारी और नेता समझत हैं। अईसे ही रहा तो अबकी साली सरकार बदलीही जाएगी।
अब्बा चराग जलाओ, रहमान ने कहा। अब्बा ने रहमान के लाये चराग को जलाया।

बकरियां अब पहले से थोड़ा शांत थीं पर पूरी तरह नहीं। एक चुप होती तो दूसरी चिल्लाने लगती। मैं आंगन में पड़ी चारपाई में जा के पसर गया। सुबह के चार बजे गए थे। आसमान का कालापन कम हो रहा था। तारे अब कम गाढ़े दिख रहे थे। शंकर जी के मंदिर की घंटियां भी बजनी शुरू हो गईं थीं। आरती का समय हो गया था। मैं कब सो गया पता ही नहीं चला।
सुबह आंख खुली तो मैं उठा और बरोठे में गया जहां बकरियां बंधीं थीं, वहां एक भी बकरी नहीं थी। कोने में ढेर सारी राख फैली थी। मैं आंगन में फिर लौटा और चच्ची के कमरे की तरफ आवाज लगाई, पर कोई नहीं बोला। पास गया तो देखा दरवाजे पर कुंडी लगी हुई थी। पूरे घर में सन्नाटा पसरा था। मैं चारपाई में फिर बैठ गया। तभी बाहर से जोर-जोर से आवाजें आने लगीं तो बाहर की भागा और सीधे बाहर चउरा पर पहुंच गया। वहां लोगों की भीड़ लगी थी। रहमान, अब्बा, अम्मा, राजू चाचा और गांव भर के लोग जूट थे। एक किनारे अबरार बैठे रो रहा था उसके पास ही खून बिखरा पड़ा था। पास पहुंचा तो मैं अवाक रह गया। मुझे देख अबरार मुझसे चिपट गया और जोर-जोर से रोने लगा। पास में ही उसकी सबसे प्यारी बकरी छुनिया मरी पड़ी थी। उसके मुंह से झाग निकला हुआ था। बगल में उसका भ्रूण भी पड़ा था। राजू चाचा ने बताया किसी ने अब्बा से दुश्मनी निकालने के लिए रात में छुनिया के पेट में लात-घूंसे चलाये और कोई देख पाए इससे पहले ही भाग निकला। बाहर रास्ते की तरफ सो रहे चम्पू ने रात में अब्बा के बरोठे से निकल भागकर जाते एक आदमी को देखा था पर अंधेरा होने की वजह से वह पहचान नहीं पाया। चम्पू ने भी मुझसे इस बात की तस्दीक की। डॉक्टर साहब बता गए थे कि छुनिया को घास में मिलाकर जहर भी खिलाया गया।

घर वाले, मुहल्ले वाले सब गुस्से में हैं। हमारी तो किसी से दुश्मनी भी नहीं, कोई बेजुबानों से कैसे रंजिश निकाल सकता है, अम्मा रो रोकर कह रही हैं। अब्बा उन्हें ढांढस बंधा रहे हैं। बाकी बकरियां सदमे में हैं। किसी ने घास तक नहीं खाई है, वे पागुर तक नहीं कर रहीं हैं। घनघोर शोक में हैं वो। अबरार अभी भी मुझसे लिपटा हुआ है, उसके आंसुओं से मेरे पेट के पास की शर्ट गीली हो चुकी है। बाकी बची बकरियों और अबरार का दर्द एक है। उसे कोई नहीं समझ पाएगा। ये पीड़ा असहनीय है।